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श्रीअरविन्दप्रणित राष्ट्रीय शिक्षणाची योजना

Narendra Nadkarni March 14, 2023

          देशाला  स्वातंत्र्य  मिळालं त्याच्या  जवळ  जवळ  ४० वर्ष  आधी राष्ट्राची  पुनर्बांधणी  कोणत्या तत्वाच्या आधारे करावी . कोणत्या भरभक्कम पायावर  करावी  याविषयी  श्रीअरविंदानी  आपले  विचार  व्यक्त  केले  होते .

            ” एखादे  राष्ट्र  जागृत  झाल्यावर  फक्त  एखाद्याच  गोष्टीत  स्वत:चा  विकास  साधत  असेल  तर  ती  जागृतता  ना  प्राणशक्ती  देते , ना  कायमस्वरूपी  ठरते  . मात्र  जेंव्हा  राष्ट्रीय  आत्मा  जागृत  होतो  , अथवा  केला  जातो  तेंव्हा  मानव  त्याच्या  अंतर्यामीच्या  आत्म्याचा  आनंद  अथवा  सामर्थ्य  जिथे  म्हणून  व्यक्त  करू  इच्छितो  अशा  सर्व  प्रकारच्या  कार्यक्षेत्रात  जीवन  मोठ्या  जोमाने  प्रगट  होऊ  लागते”

            ”  राष्ट्राच्या  उभारणीच्या  प्रेरणेचा  पाया  हा  त्या  राष्ट्राच्या  संस्कृतीनेच घालावा  लागतो  . तिथे  अर्थशास्त्र , राजकारण  अथवा  तंत्रज्ञान  चालत  नाही .  कारण

कोणत्याही  राष्ट्राची  गुण संपदा  आणि  त्या  राष्ट्रातील  समाजाच्या  कल्पना  आणि  वैचारिकता   ही  त्या  राष्ट्राच्या  संस्कृतीतूनच  प्रतीत  होत  असतात  . संस्कृती  ही  राष्ट्राच्या  बुद्धिमत्तेची ,  नैतिकतेची  , सौंदर्याभिरुचितेची आणि  आध्यात्मिक  शक्तीची  व्यक्तता  असते . “

           यावरून  स्पष्ट  होतं  की  राष्ट्र उभारणीसाठी श्रीअरविन्द  राष्ट्राचा आत्मा आणि  संकृती  यांना  केंद्रस्थानी  ठेवत होते. अर्थात  हा  केवळ  एक  विचार नव्हता तर  प्राचीन काळातील  आर्य समाजाने  याच दोन तत्वांना  प्राधान्य देऊन  केलेल्या  सर्वांगीण प्रगतीचा  आदर्श  समोर  होता . ब्रेन  ऑफ  इंडिया  या लेखात  त्या प्रगतिचे  दाखले देऊन  श्री अरविन्द  म्हणतात ” Without  a  great  and  unique  discipline  involving  a  perfect  education  of  soul  and  mind  , a  result  so  immense  and  persistant  would  have  been  impossible  . ”  

        श्री अरविन्द  म्हणतात  शिक्षणासंबंधी  आपण  जेंव्हा  विचार  करू  लागतो  तेंव्हा  ३  घटक  प्रामुख्याने  समोर  येतात  १)  मानव  २ ) राष्ट्र  ३) सारी मानवता . तिसर्‍या  घटकावरून  आपल्या  ध्यानात  येईल  की  श्री अरविंदांचा आध्यात्मिक  राष्ट्रवाद हा  जसा  संपूर्ण  मानवतेच्या  हितवार  आधारलेला  होता तसाच  त्यांच्या  राष्ट्रीय शिक्षणात  सुद्धा  सार्‍या  मानवतेचा  विचार  केलेला  होता . यानंतर  खरे  शिक्षण  कशास   म्हणावे   ते   स्पष्ट  करताना   श्री  अरविन्द  म्हणतात  —

१ )  मानवी  जीवनाचा  मूलभूत  हेतु  साध्य  करण्यासाठी  व्यक्तिमात्रातील  गूण  बाहेर  आणून त्याला  जे  पूर्णपणे  तयार  करते  तेच  खरे  शिक्षण .

२ )  ती  व्यक्ति  ज्या  राष्ट्राचा घटक असते  त्या  राष्ट्राच्या  जीवनाशी  , मानसिकतेशी  आणि  आत्म्याशी योग्य  ते  संबंध  जुळविण्यासाठी  जे  मदत  करते तेच  खरे  शिक्षण

३ )  ती  व्यक्ति  व  त्याचे  राष्ट्र  हे  ज्याचे  घटक  असतात  त्या  संपूर्ण  मानवतेचे

    जीवन , मानसिकता , व आत्मा  यांचेशी  योग्य  ते  संबंध  जुळविण्यास जे  मदत

      करते  तेच  खरे  शिक्षण  .    

         यानंतर  शिक्षणाची  मूलभूत  तत्वे  स्पष्ट  करताना श्री  अरविन्द म्हणतात

”  मानवी  मनाचा  अभ्यास  हाच  वस्तूत:  शिक्षणाचा  खरा खुरा  पाया  असतो  मग ते  मानवी  मन  बालकाचे  असो , कुमाराचे  असो  अथवा एखाद्या  प्रौढाचे  असो . ” यानंतर ते  बजावतात  की  ”   केवळ  विद्यालयीन  परिपूर्णतेच्या  सिद्धांतावर  आधारलेल्या  कोणत्याही  पद्धतीत  जर  मनाला  दुर्लक्षित  ठेवले  जात  असेल  तर  त्यामुळे  बौद्धिक  प्रगतिच्या निकोप  वाढीस  धक्का  पोहोचतो  ”  शिक्षणाची  मूलभूत तत्वे —

१ )  पहिले  तत्व —  काहीही  शिकवता  येत  नाही .

२ )  प्रगति ज्या मनाची साधायची  त्याचा प्रथम सल्ला घ्यायला हवा

३ )  जे  आता आहे तेथून जे होणार आहे तेथपर्यंत  कार्य  करणे 

         शिक्षणाची  मुख्य  तत्वे  सांगितल्यावर शिक्षण  ज्याला  द्यावयाचे  त्या  मानवी  मनाच्या तीन प्रमुख  स्तरांच्या कार्य पद्धतीचा श्री अरविंदानी  ऊहापोह केला आहे

पहिलं स्तर – चित्त – इंद्रियानी प्राप्त केलेल्या  ज्ञांनाचा संचय चित्तात  केला  जातो .

दूसरा स्तर –  मन – चित्तातील ज्ञान-प्रतिमांचे रूपांतर विचार संवेदंनांमध्ये करणे हे  मनाचे

                  मुख्य  कार्य .

तिसरा स्तर – बुद्धी – प्राप्त झालेल्या ज्ञांनाची , विचार संवेदनाची छाननी करून त्यावर

                    निर्णय  घेण्याचे कार्य बुद्धी  करते .

          या  आंतरीक  इंद्रियाना  नाक , डोळे , कान , रसना  आणि   स्पर्श  ही  बाहयेंद्रिये  माहितीजन्य  ज्ञांनाचा  पुरवठा  मज्जावाहिन्यांच्या  मार्फत  करतात . परंतु  या मज्जावाहिन्या  जर  सक्षम  नसतील  अथवा  त्यात  जर  काही  अडथळा  असेल  तर आंतरीक  इंद्रियाना  अचूक  माहिती  मिळू  शकत  नाही . मात्र  हा  दोष प्राणायामाच्या अभ्यासाने  घालविता  येतो.  परंतु  कित्येकदा  चित्त  जर  पूर्वग्रहदूषित  असेल  तर मिळालेल्या  अचूक  माहितीतूनही  चुकीचा  अर्थ  काढला  जातो . व  त्यामुळे  चुकीचे  निष्कर्ष  काढले  जातात . यासाठी प्राचीन  काळातील  शिक्षण पद्धतीत प्राणायामाबरोबरच योगसाधनेचा वापर  करून  चित्त शुद्धी साधली  जात  असे .  म्हणजे अचूक  ज्ञानप्राप्ती आणि  अचूक  निर्णायक्षमता  यासाठी  प्राणायाम  आणि  चित्तशुद्धी  अनिवार्य  आहेत .

यापुढेही  जाऊन  श्री अरविन्द म्हणतात की  मानवाची  आंतरीकता  ही  मुळात  सत्व , रज  आणि  तम  या  तीन  गुणांची  बनलेली  आहे . सत्वगूण  हा  असा प्रकाश  आहे जो अंतर्यामी  दडलेले  ज्ञान  बाहेर  आणून  त्याचे  दर्शन  घडवितो मात्र  त्यासाठी  प्रथम कठोर  नैतिकतेचा  अवलंब  करून  रज आणि  तम या  गुणांचा  प्रभाव  नाहीसा  करावा  लागतो  .

        यानंतर  निरीक्षणशक्ति ,  स्मरणशक्ति , कल्पनाशक्ति  , निर्णयक्षमता  इत्यादि मनाच्या  निसर्गदत्त शक्तींचे  महत्व  अधोरेखित  करून  त्यांचे  प्रशिक्षण  कसे  करावे  त्याचा  श्री अरविंदानी  ऊहापोह  केला आहे . शिक्षण  हे  सुरूवातीस  मातृभाषेतून  द्यावे , एकदा  मातृभाषेवर  प्रभुत्व  मिळविले  की  इतर  भाषांचा अभ्यास  करणे  अवघड  जात नाही  असे  मत  त्यांनी  व्यकत  केले  आहे .

         शिक्षणात  नैतिकतेचे  महत्व  अधोरेखित  करताना  श्री अरविन्द  म्हणतात  —

”  मानवाच्या  जीवन शास्त्रात  मानसिक  प्रकृती  ही  नैतिकतेवर  अवलंबून  असते आणि  बुद्धीला  दिलेल्या  शिक्षणात  जर  नैतिकता  आणि  भावनाशीलता  यांच्या  परिपूर्णतेचा  अभाव  असेल  तर  ती  गोष्ट  मानवाच्या  प्रगतीसाठी  धोकादायक  ठरू  शकते  “

मात्र  नैतिकतेचे  धडे  नीतिशास्त्राची  पुस्तके  अभ्यासक्रमात  लावून देता  येत  नाही . प्राचीन  काळातील  गुरुकुल  पद्धती  त्यासाठी  उत्कृष्ट  होती  पण  आजच्या  युगात  ती अवघड  आहे  मात्र  Friend , Philosopher , Guide  या  भूमिकेतला  शिक्षक  आपल्या आदर्श  वागणुकीचे  उदाहरण  समोर  ठेवून  आवश्यक  तो  परिणाम  घडवू  शकतो.

        नैतिकतेच्या  जोडीने  धार्मिकतेचा  विचार  होणे  आवश्यक  ठरते . श्री अरविन्द  म्हणतात  केवळ  धर्म नियमांचा  अभ्यास  केल्याने  आंतरीक जीवनावर  काहीही  परिणाम होत  नाही उलट  अशा  शिक्षणाने  धर्मनिष्ठ  कर्मकांडी  तरी  निर्माण  होतात  अथवा  धर्मवेडे  निर्माण  होतात . धर्म  हा  जगायचा  असतो . धार्मिक  जीवनाच्या  तयारीसाठी  साधंनांचा  आणि  आध्यात्मिक  शिस्तीचा  उपयोग  हा  एकमेव  मार्ग  आहे  असे  प्रतिपादन  करून  शेवटी  श्रीअरविन्द म्हणतात  ”जगावे  तर परमेश्वरासाठी , मानवतेसाठी

देशासाठी , इतरांसाठी आणि  या  सर्वात  स्वत:साठी  हे  जे  धार्मिक  जीवनाचे सार  आहे

ते  मात्र  स्वत:ला  राष्ट्रीय  म्हणविणार्‍या प्रत्येक  शाळेने  एक  आदर्श  विचार  म्हणून स्वीकारायला  हवे .

         Brain of India या लेखात  विद्यार्थी जीवनात  किंबहुना  ब्रम्हचर्याश्रमात ज्ञान संपादन  करण्याच्या  कार्यात  ब्रम्हचर्य  पाळण्याचे  महत्व  विशद  करून  श्री अरविन्द

म्हणतात – ”  Bramhacharya and Sattvik development  created the  Brain of  Ancient  India and  it  was  perfected   by  Yoga . “

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रूपांतर आणि संकलन –  नरेंद्र  नाडकर्णी                               

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