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रोग –  रोग निवारण  –  रोग मुक्ति

Narendra Nadkarni March 14, 2023

        जीवनात  शारीरिक , मानसिक , किंवा  आध्यात्मिक  या  3 पातळीतील  सुसंवाद  बिघडला , या ३  स्तरांवर  असमतोल  निर्माण  झाला  की  रोग  निर्माण होतात. म्हणून  या  प्रत्येक  पातळीवर आरोग्यवर्धक वातावरण  निर्माण  करायचा प्रयत्न  करावा लागतो . काहीतरी  बाह्य  कारणांनी  रोग  होतो  असा  सर्वसाधारण  समज  असतो . पण  खरोखरी  आंतरीक  जीवनशक्ती  मंद  किंवा  दुर्बल  झाली  आणि  प्रतिकार  शक्ति  कमी  झाली  म्हणजे  रोग  होतो . ज्यावेळी  काही  पेशी  अथवा  अवयव  यांचे  ठिकाणी  होणारे  जीवनशक्तीचे  कार्य  मंदावते त्यावेळी तेथे  अस्वास्थ्य किंवा  रोग  निर्माण  होतो अशा  वेळी  त्या  पेशींना  किंवा  त्या  अवयवाला  पुन्हा  कार्यरत  करण्यासाठी  काढे , औषधे ,  गुटिका  ,  मात्रा ,  चूर्णे  ,  शरीर-मर्दन  इत्यादि  उपाय  केले  जातात . या  सर्वांचा  परिणाम  काय  होतो ?  रक्तात  रासायनिक  बदल  घडवून  आणल्याने  किंवा पेशींना  उत्तेजित  केल्याने  शरीरातील  बिघडलेला  सुसंवाद  पुन्हा  सुरू  होतो . मुख्य  काम  जीवन  शक्तीच  करते  कारण  तसे  नसते  तर  निर्जीव  शरीरातही  ही  औषधे  आपला  प्रभाव  दाखवू  शकली  असती  . पण  तसे  होत  नाही  . औषधाना स्वत:ची अशी  स्वतंत्र  रोग निवारणाची  प्रेरणा  नसते . शरीरात  सदा  विद्यमान  असलेली  जीवन शक्ति  या  सर्वांचा  उपयोग  करून  रोग  निवारण  करते .          

          शारीरिक  अस्वास्थ्य  चटकन  समजते  पण  भय , क्रोध , अनिष्ट सवयी , निरुत्साह ,  पराभूतवृत्ती  ,  आत्म- विश्वासाचा  अभाव , या  गोष्टी  सुद्धा  विशिष्ट  पातळीवरील  रोगच  आहेत  . तसेच  उदासीनवृत्ती ,  दैवाधीनता , नैराश्यवृत्ती , बौद्धिक  आढ्यता ,  स्वमताग्रही वृत्ती , संशयी वृत्ती  , अश्रद्धा  , विस्मरण  हे सुद्धा एक प्रकारचे  रोग होत . शारीरिक  आरोग्य  रक्षणासाठी  निसर्ग नियमांचे  काटेकोर  पालन , अन्नग्रहणाच्या  बाबतीत  संयम  आणि  स्वच्छतेचे  नियम कसोशीने  पाळायला हवेत .

भय , क्रोध , चिंता  यांचा  हृदय क्रियेवर  परिणाम  होतो  म्हणून  ते  टाळायला  हवे . मानसिक  आरोग्य रक्षणासाठी विश्वशक्ति  कार्यरत  आहे  अशी  श्रद्धा  व  शांति  यांची  जोपासना  करावी . मनातील  विक्षेप  वाढविणारे  विचार  घालवून  त्या  जागी  प्रेम  आणि  आनंद  आणावयाचा  प्रयत्न  करावा . 

            बरेचसे  आजार  सर्वसाधारण  उपायांनी  बरे  होऊ शकतात परंतु  काही  विशिष्ट  आजारांच्या  बाबत  मात्र  विशिष्ट  चिकित्साप्रणालीचा  उपयोग  करणे  गरजेचे  ठरते . पण  त्याच बरोबर  प्रत्येक  व्यक्तीने  नियमित  जीवनक्रम  ठेवायला  पाहिजे  आणि आपली  आंतरीक  अवस्था  स्वस्थ  आणि  सुंदर  ठेवायला  हवी .

          एक  चांगला  जीवनक्रम  याचा  अर्थ  योग्य  आहार , उचित विहार , पुरेशी  झोप ,  कार्यमग्नता  आणि  विश्रांति  यांचा  सामंजस्यपूर्ण  ताळमेळ . जर  आम्हाला  पूर्ण  आरोग्य संपन्न  रहावयाचे  असेल  तर  जितका  योग्य  आहार -विहार  आवश्यक  आहे  तितकेच  चांगले  विचार  आणि  चांगला  प्रभाव  आवश्यक  आहे  . त्याच बरोबर  जीवनात  एका  चांगल्या  मनोरंजनाला  देखील  स्थान  असायला  हवे  कारण  त्यामुळे  आमच्या  शरीरातील  ग्रंथिंचे  पोषण  चांगले  होते . आहार- व्यायाम- निद्रा याबाबत–   —

१ )  भोजनाची  एक  नियमित  वेळ  ठरवावी  म्हणजे  त्यावेळी  पाचक  रस  आपोआप    श्रवू  लागतात .

२ )  दोन  वेळा  मुख्य  जेवण  आणि  एक  वेळा  नाश्ता  घेण्यास  हरकत  नाही . जेवण  चौरस  असावे .  कोणत्याही  एका पदार्थाचा  अतिरेक  टाळावा. खूप  उपवास  करणे  उचित  नाही .   

३ )  ऋतुमानानुसार  फळे  खावीत व  भोजनात  सर्व   प्रकारच्या  भाज्या  ज्यात  सर्व  आवश्यक  तत्वे ,आणि  तंतुमय  पदार्थ  तसेच  कोंडा  असतो त्या  सर्व  गोष्टी  पोट  , आतडी  रक्त  व  हृदय  या  सर्वांसाठी  चांगल्या  असतात . राहिलेली  कमतरता  एक  कप  दूध  ,  डाळ , भात , पोळ्या  यांनी  भरून  जाते .

४ )  चौरस  शाकाहारी  आहार  हा  मांसाहारापेक्षा  चांगला  असतो  पण  काही  वेळा  अंड्याचा  पांढरा  भाग  आणि  मासे  काही  आजारात  उपयोगी  ठरतात .

५ )  शरीरस्वास्थ्यासाठी  पाण्याची  नितांत  गरज असते . ६ ते ८ ग्लासपर्यन्त  पेय पदार्थ पोटात गेल्यास  शरीर  पूर्ण  स्वास्थ्याकडे  वाटचाल  करते . जपानमध्ये  झालेल्या  संशोधनानुसार पाणी  भावपूर्णतेने  ( मंत्रोच्चार  किंवा  प्रार्थना करून ) प्यायले  असता  त्यातील  अणू परमाणु  आपल्या  शरीरात  आश्चर्यकारक बादल  घडवून  आणतात . 

६ )  व्यायाम  केवळ  शरीराचेच  नव्हे  तर  मनाचे  पोषण  करतात . नियमित  व्यायाम मस्तकात अशी रसायने  निर्माण  करतो  ज्यामुळे आम्हास  प्रसन्नता  वाटते  तसेच त्यामुळे  रक्तप्रवाह , हृदयाच्या नसा  मोकळ्या  होणे , मांसपेशींचे  कार्य सुधारणे , पचन सुधारणे , चरबी कमी होणे  इत्यादि  लाभ होतात . व्यायाम  श्यक्य नसेल  तर श्वासाकडे  लक्ष्य  देऊन कमीतकमी  ४५ मिनिटे  ते  १ तास  पायी  चालावे . आसने , पोहोणे , खेळ  व  नृत्य  यांचाही  चांगला उपयोग  होतो .

७ )  आहाराप्रमाणे तसेच  व्यायामाप्रमाणे  निद्रा ही  घेणे  आवश्यक आहे . निसर्गत:  शरीरात  निद्रेचे  रसायन  रात्री  १० ते ५  या वेळेत  तयार होते . निद्रानाशाच्या विकारावर योग्य तो व्यायाम  व  झोपण्यापूर्वी  मधाबरोबर  एक  कप  दूध घ्यावे . सार्‍या  चिंता  भगवंतावर  सोपवाव्या . आणि  त्याच बरोबर  जप व थोडे ध्यान  करावे                       

           शारीरिक  आरोग्यावर  माताजींनी  निरनिराळ्या  दृष्टीकोनातून  विचार  व्यक्त  केले  आहेत , केवळ  आजारपणापासून  मुक्ति  हा  काही  शरीरी  आरोग्याचा  एकमेव  निकष  नाही  . आजारापासून मुक्ति  हा  नकारात्मक  विचार  आहे  तर  शारीरिक  आरोग्य  सकारात्मक  विचार  आहे . शरीरास  होणार्‍या  रोगामागे  केवळ  शारीरिक  कारणे  नसतात  तर  मानसिकतेचाही  परिणाम  असू  शकतो . आपल्या  भौतिक   शरीराच्या  भोवती  एक  सूक्ष्म  आवरण  असते  त्याला  theosophists

Etherik  Body  म्हणतात  .  माताजी  त्यास  ‘ nervous  envelope ‘ म्हणतात .

हे  आवरण  जर  मजबूत  असेल  तर  कोणताही  बाह्य आजार – रोग  आपल्या  शरीरात  शिरू  शकत  नाही  पण  बर्‍याच जणांच्या  बाबतीत  या  आवरणास  छिद्रे  असू  शकतात कारण  नकारात्मक  विचार  ,  हताशपणा , क्रोध  आणि  नकारात्मक  वागणूक  यामुळे हे  आवरण  कमकुवत  होऊन  त्यास  छिद्रे  पडू  शकतात  . आणि  म्हणून  एखादा  माणूस  सशक्त  दिसत  असला  तरी  तो  रोगाला  बळी  पडू  शकतो .

           काही  माणसे  मुळातच  आनंदी  असतात  . प्रत्येक  गोष्टीचा  स्वीकार  आनंदाने  व  सहजतेने  करतात  . त्रास  झाला  तरी  सारखी  कुरकुर  करीत  नाहीत  . याचे  कारण  अशी  माणसे  वैश्विक  प्रकृतीशी  जोडलेली  असतात . स्वत:वर  विश्वास  हवा .  आपल्या शरीराच्या  व  मनाच्या  क्षमतेवर  विश्वास  हवा  . परमेश्वरी  शक्तिवर विश्वास  हवा . अशा  प्रकारची  श्रद्धा  म्हणजे  सर्वश्रेष्ठ  सकारात्मकता  . तसे  असेल तर  कोणताही  रोग  आपल्यावर  हल्ला  करू  शकत  नाही  .  

           माधवजी पंडितांनी एक  कथा  सांगितली  आहे  . एकदा  त्यांना  एक  स्वप्न  पडलं  स्वप्नात  एक  भला  मोठा  वाघ  झुडपातून  बाहेर  येऊन  त्यांच्या  अंगावर  धावून  येतो . त्यांनी  माताजींची  प्रार्थना  करून  वाचवण्याची  विनंती  केली . त्याबरोबर  वाघ  मागे  वळला  आणि  झुडपात  नाहीसा  झाला . थोड्या  वेळाने  पुन्हा  बाहेर  आला त्यांनी  माताजींची  पुन्हा  प्रार्थना  केली  पुन्हा  तो  मागे  वळला . झुडपात  नाहीसा  झाला .  यानंतर  मात्र त्यांच्या  मनात  विचार  आला की  तो  पुन्हा  आला  तर  माझ्या  प्रार्थनेचा  उपयोग  होईल  ना ? आणि  असा  विचार  येताच  एका  झटक्यात  वाघ  बाहेर  आला  आणि  त्याने  आपल्या  पंजाने  एक  फटका  मारला  . कथेचा  अर्थ  असा  की  श्रद्धा  डळमळीत  झाली  की  आपल्यावर  बाह्य  हल्ला  होणारच . 

          रोग  निवारणाच्या  विचारात  रोग्याच्या  स्वभावाचा  कल  लक्ष्यात   घेऊन कल्पनाशक्ति  ,  तर्कशक्ती  , श्रद्धाशक्ती  ,  भावनाशक्ती  व  इच्छाशक्ती  यांचे  त्यानुसार  सहाय्य  घ्यावे   लागते . आंतरिक  स्थिति  अनुकूल  झाली  म्हणजे  मग  संकल्प सुत्रे  दृढ संकल्पाने  पुन: पुन:  उच्चारावी  . या  सूत्रांच्या  मुळाशी  असलेल्या  सारतत्वाने  संकल्पशक्ती  भरून  जाईल  व  त्यायोगे  आंतरिक  जीवनशक्ती  रोग निवारणाचे  आपले  कार्य  जोमाने  व  अधिक  सुलभतेने  करू  लागेल .

           सकाळी  उठल्यावर  अथवा  झोपी  जाण्यापूर्वी  हा  प्रयोग  करावा .

श्यक्य  तितकी  शांत  जागा  निवडावी  . मनातील  खळबळ   शांत  करून  ते  रिकामे करावे  .  नंतर  खालीलप्रमाणे   `संकल्प  प्रथम  मोठयाने  म्हणावा , नंतर  हळू  हळू लहान  आवाजात म्हणत  शेवटी  मनात   म्हणावा  उदा .  ”  माझे  विचार  व  भावना व इच्छा  परमेश्वरी  इच्छेशी  एकरूप  होऊ  दे . माझी  प्रतिकार  शक्ति  वाढू  दे . माझी  चेतनाशक्ति  विश्वशक्तिशी  जोडली  जाऊ  दे .  माझ्या  विचारात ,  भावनात व शरीरात  समतोल  निर्माण  होऊ  दे .  ”  असे  करताना  एकाग्रता  साधावी . मात्र  जागृत  राहून  संकल्प चिंतन  चालू  ठेवावे  .  याप्रमाणे  आणखी  खोल  गेल्यावर  शांति आणि  आनंद  यांची  जाणीव  होऊ  लागेल  आणि  संकल्पाचे  रोग  निवारक  सामर्थ्य  प्रतीत  होऊ  लागेल  .     

           ============== ##########  ==============

संकलन : —-  नरेंद्र  नाडकर्णी       संदर्भ : ” Satsang ” by  M.P. Pandit

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